Basic Knowledge of Hindi Language Part-6

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हिंदी भाषा का बुनियादी ज्ञान भाग -6

  • मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई में रस निहित है – ईश्वर रति, भक्ति
  • यह लहि अपनी लकुट कमरिया, बहुतहि नाच नचायौ। में रस निहित है – वत्सल, वात्सल्य
  • समस्त सर्पो संग श्याम यौ ही कढे, कलिंद की नंदिनि के सु अंक से। खडे किनारे जितने मनुष्य थे, सभी महाशंकित भीत हो उठे॥ में निहित रस है – भय, भयानक
  • देखि सुदामा की दीन दसा, करूणा करि के करूणानिधि रोये। में रस है – शोक, करूण
  • मैं सत्य कहता हूं सखे! सुकुमार मत जानो मुझे। यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा जानो मुझे॥ में रस है – उत्साह, वीर
  • ‘एक और अजगरहि लखि, एक ओर मृगराज। विकल बटोहीं बीच ही, परयो मूरछा खाय’ में रस है – भयानक
  • पुनि-पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू, पुलक गात, उर अधिक उछाहू। में कौनसा अनुभाव है – कायिक, सात्विक, मानसिक
  • रस के मूल भाव को कहते हैं – स्थायी भाव
  • चित्त के वे स्थिर मनोविकार जो विरोधी अथवा अविरोधी, प्रतिकू अथवा अनुकूल दोनों प्रकार की स्थितियों को आत्मसात कर निरंतर बने रहे रहते हैं कहलाते हैं – स्थायी भाव
  • वे बाह्य विकार जो सहृदय में भावों को जागृत करते हैं कहलाते हैं – विभाव
  • स्थायी भाव को उद्दीप्त या तीव्र करने वाले विभाव कहलाते हैं – उद्दीपन
  • जिसके मन में भाव या रस की उत्पति होती है उसे कहते हैं – आश्रय
  • रोमांच, स्वेद, अश्रु, कंप, वैवण्र्य आदि कौनसे अनुभाव है – सात्विक
  • जिनके द्वारा आलम्बन के मन में जागृत होने वाले स्थायी भाव की जानकारी होती है उन्हें कहते हैं – अनुभाव
  • करूण रस का स्थायी भाव है – शोक
  • देखन मिस मृग विहंग तरू, फिरति बहोरि-बहोरि, निरखि-निरखि रघुवीर-छवि। काव्यांश में आश्रय है – सीता
  • अधिक सनेह देह भई भोरी। सरद-ससिहि जनु चितव चकोरी।। लोचन मग रामहि उर आनी, दीन्हें पलक कपाट सयानी।। उक्त चौपाई में रस है – शृंगार
  • मधुबन तुम कत रहत हरे, विरह वियोग स्याम सुंदर के, ठाडे क्यो न जरे ? काव्यांश में आलम्बन है – श्याम सुंदर
  • सुन सुग्रीव मैं मारि हो, बालि हिं एकहि बान, ब्रह्मा रूद्र सरणागत, भयउ न उबरहि प्रान। काव्यांश में व्यक्त उत्साह भाव का आलम्बन कौन है – सुग्रीव
  • कामायनी कुसुम पर पडी, न वह मकरंद रहा। एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग कहा। पंक्तियों में निहित स्थायी भाव व आश्रय है – शोक, मनु
  • समता लहि सीतल भया, मिटी मोह की ताप, निसि वासर सुख निधि लह्या, अंतर प्रगट्या आप में स्थायी भाव है – निर्वेद
  • भाषे लखन कुटिल भई भौहे। रद पद फरकत नयन रिसौहें। रघुबंसिन मंह जहं कोउ होई। तेहि समाज अस कहै न कोई। में रस है – उत्साह, वीर

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