Basic Knowledge of Hindi Language Part-5

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हिंदी भाषा का बुनियादी ज्ञान भाग-5

  • भयानक रस का परिचय है – भय इसका स्थायी भाव है। सिंह, सर्प, भंयकर जीव, प्राकृतिक दृश्य, बलवान शत्रु को देखकर या वर्णन सुनकर भय उत्पन्न होता है। स्त्री, नीच मानव, बालक आलम्बन है। व्याघ्र उद्दीपन विभाव और कम्पन अनुभाव, मोह त्रास संचारी भाव है।
  • बौरो सबे रघुवंश कुठार की, धार में वार बाजि सरत्थहिं। बान की वायु उडाय के लच्छन, लच्छ करौं अरिहा समरत्थहिं॥ में रस है – रोद्र रस
  • जौ तुम्हारि अनुसासन पावो, कंदूक इव ब्रह्माण्ड उठावों। काचे घट जिमि डारों फोरी संकऊं मेरू मूसक जिमि तोरी में रस है – रोद्र
  • ‘शोक विकल सब रोवहिं रानी, रूप शील बल तेज बखानी, करहिं विलाप अनेक प्रकारा, परहिं भूमि-तल बारहिं बारा’ में रस है – करूण
  • वीभत्स रस की परिभाषा है – वीभत्स रस का स्थायई भाव जुगुप्सा है। दुर्गन्धयुक्त वस्तुओं, चर्बी, रूधिर, उद वमन आदि को देखकर मन में घृणा होती है।
  • अद्भूत रस का परिचय है – इस रस का स्थायी भाव विस्मय है। अलौकिक एवं आश्चर्यजनक वस्तुओं या घटनाओं को देखकर जो विस्मय भाव हृदय में उत्पन्न होता है उसमें अलौकिक वस्तु आलम्बन विभाव और माया आदि उद्दीपन विभाव है।
  • शांत रस की व्याख्या कीजिएि – शांत रस का विषय वैराग्य एवं स्थायी भाव निर्वेद है। संसार की अनित्यता एवं दुखों की अधिकता देखकर हृदय में विरक्ति उत्पन्न होती है। सांसारिक अनित्यता-दर्शन आलम्बन और सजन संगति उद्दीपन विभाव है।
  • शांत रस का उदाहरण है – हरि बिनु कोऊ काम न आवै, यह माया झूठी प्रपंच लगि रतन सौ जनम गंवायो
  • वात्सल्य रस का परिचय दीजिए- इसका स्थायी भाव वत्सल है। इसमें अल्पवयस्क शिशु आलम्बन विभाव, उसकी तोतली बोली एवं बाल चेष्टाएं उद्दीपन विभाव है।
  • भक्ति रस की परिभाषा है – स्थायी भाव देव विषयक रति आराध्य देव, आलम्बन, सांसारिक कष्ट एवं अतिशत दुख उद्दीपन विभाव है। दैन्य, मति, वितर्क, ग्लानि आदि संचारी भाव है।
  • रस को आनंद स्वरूप मानने वाले तथा अभिव्यक्तिवाद के संस्थापक है – अभिनव गुप्त
  • भट्टनायक ने किस रस सिध्दांत की स्थापना की – भुक्तिवाद की।
  • संयोग शृंगार का उदाहरण है – बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
  • वियोग शृंगार का उदाहरण है- कागज पर लिखत न बनत, कहत संदेश लजाय
  • ‘एक और अजगरहि लखि, एक और मृगराय, विकल बटोही बीच ही, परयो मूरछा खाय’ में रस है – भयानक रस
  • आचार्य भट्लोल्लट का उत्पतिवाद है – आचार्य के अनुसार रस वस्तुत: मूल पात्रों में रहता। दर्शक में भ्रम होने से रस की उत्पति होती है।
  • आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद है – रंगमंच पर कलाकार के कुशल अभिनय से उसमें मूल पात्र का कलात्मक अनुमान होता है, जैसे चित्र में घोड़ा वास्तविक नहीं होता है, देखने वाला अश्व का अनुमान लगाता है।
  • आचार्य अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद के निष्पति का अर्थ है – विभव, अनुभाव आदि से व्यक्त स्थायी भाव रस की अभिव्यक्ति करता है। इस प्रक्रिया में काव्य पढ़ते या नाटक देखते हुए व्यक्ति स्व और पर का भेद भूल जाता है और स्वार्थवृति से परे पहुंचकर अवचेतन में अभिव्यक्त आनंद का आस्वाद लेने लगता है।
  • मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूंद विनसि जाय छिन में गरब करै क्यों इतना॥ में रस है – शांत रस
  • अंखिया हरि दरसन की भूखी। कैसे रहे रूप रस रांची ए बतियां सुनि रूखी। में रस है – वियोग शृंगार
  • रिपु आंतन की कुण्डली करि जोगिनी चबात, पीबहि में पागी मनो, जुबति जलेबी खात॥ में निहित रस है – जुगुप्सा, वीभत्स

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