भगवान बुद्ध की खोज का समर्थन

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भगवान बुद्ध की खोज का समर्थन:

.    जो लगभग २६०० साल पहले की थी-

    शाश्वतवाद व उच्छेद दोनो को नहीं माना बल्कि

   सन्तति प्रवाह व प्रतिक्षण हो रहै परिवर्तन को ही

   संसार का हेतु माना था

सब्बोलोको पकम्पितो सब्बोलोको पजल्लितो

बुद्ध के  बाद में पहले पांचवी शताब्दी में ग्रीक के तत्ववेत्ताओं ने अणु और परमाणु की खोज की, बाद में १५६४ में १५६४ में गलीलियो , १८०३ में डाल्टन, १९०५ में आइन्स्टाइन, १९१० में रुदरर्फोर्ड, इत्यादी लोगों ने परमाणु का भी विभाजन एलेकट्रान, न्यूट्रान और प्रोटान इत्यादी के रूप में कर दिया और ये भी सिद्ध कर दिया की एलेकट्रान, न्यूट्रान और प्रोटान भी केवल “तरंग” मात्र है, अपनी एक्सिस पर तरंगित (Vibrate) होते रहते है. अतः यह सिद्ध हो गया की इस भौतिक जगत का अंतिम सत्य तरंग मात्र है, और ये कोस्मिक डान्स सतत परिवर्तनशील है. यह इतनी तीव्र गति से होता है कि ठोस जैसा प्रतीत होता है, वस्तुतः वो तरंग मात्र है.! 

बर्कले की केलिफोर्निया की यूनिवर्सिटी का साइंटिस्ट डाक्टर लुईस वाल्टर आल्वरस (Luis Walter Alvarez) इसके दिमाग में ये आया की इस भौतिक जगत का अंतिम सत्य तरंग मात्र है, लेकिन ये तरंग एक सेकण्ड में कितनि बार वाइब्रेट होती है? इसने एक “बबल चेंबर” बनाया और पाया की एक के आगे २२ बिंदी लगाओ इतनी बार ये तरंग वाइब्रेट होती है. इस व्यक्ति को १९६८ में फिजिक्स में नोबल प्राइज मिला. हिरोशिमा नागासाकी पे जो बम गिराए गए थे उसका डिझाइन इस व्यक्ति ने बनाया था. 

भगवान बुद्ध ने अपनी बोधि में देखा: “सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो को पकम्म्पितो” सारा लोक प्रकम्म्पन – प्रज्वलन मात्र है और चुटकी बजाऊ इतनी देर में शत-सहत्र-कोटि बार (एक लाख बार करोड़) उत्पाद होकर व्यय हो जाता है और ऐसा अनेक बार होता है. “उप्पाद-वय धम्मिनो” उत्पाद होना व्यय होना यही इनका ध्रुव-धर्म है. ! 

एक ही सच्चाई तक दोनों पहुंचे पर एक विकारों से नितांत विमुक्त हो गया और लुईस वाल्टर आल्वरस की व्याकुलता का क्या ठिकाना: इस आदमी की ये इच्छा थी की हिरोशिमा नागासाकी पे जब बम गिराया जाय तो उस विभिषीका को अपनी आँखों से देखूं. खैर ..

नटराज नृत्य: शिवनृत्य प्रतीकात्मक ही है. यह कोस्मिक तरंगों-किरणों का उदय-व्यय ही नहीं बताता है बल्कि जन्म-मरण के चक्कर का भी यह प्रतीक है. यही ब्रम्हनाद है.! 

ये सारे प्रकम्पन एक दुसरे के आकर्षण में बंधे हुए है – टकराते है – बनते है – टूटते है – अनेक रूप धारण करते रहते है. ये कोस्मिक डान्स इस भौतिक जगत का अंतिम सत्य है जो इन आँखों से दृश्यमान नहीं है इसी कारण जो आँखों से दिखता है हम उसी को सत्य मान बैठते है. जबकि सारा जगत प्रकम्पनो का बुना हुआ जाल है और यही माया है.! 

यह ठोस प्रतीत होने वाला शरीर वस्तुतः असंख्य-असंख्य परमाणुओं-का, कलापों-का पुंज मात्र है. (कलापों का भी कोई अस्तित्व नहीं और वे केवल स्वभाव मात्र है.) यह परमाणुओ का पुंज भी सतत प्रवाहमान है, परिवर्तनशील है; नित्य-स्थिर नहीं है. यही दशा मन की भी है. !

मन के प्रकम्पन शरीर के प्रकम्पन में बदल जाते है और शरीर के प्रकम्पन मन के प्रकम्पन में. (Mind converts into matter & wise versa). तृष्णा हो, लालसा हो, आसक्ति हो, राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह मद, मद, मत्सर, इर्ष्या, वैर, अहंकार, ये सारे है प्रकम्पन ही प्रकम्पन है. मन में उत्पन्न होने वाले सारे विकार (Emotions) और विचार (Thought) ये सारे तरंग मात्र है और हर तरंग की वेव-लेंथ होती है. अगर हम हमारे मन में क्रोध की तरंगे पैदा करेंगे तो पुरे ब्रम्हांड में उस वेव-लेंथ की तरंगे जहा भी होंगी हम उससे ट्यून-अप हो जायेंगे इसी प्रकार अगर हम अपने मन में मैत्री-करुना-मुदिता-सद्भावना की तरंगे पैदा करेंगे तो पुरे विश्व में जहा भी वैसी तरंगे होंगी हम उससे ट्यून-अप हो जायेंगे. !

अब ये हमारे ऊपर निर्धारित है की हम कितने अच्छे ट्रांसमीटर बन जांए और कितने अच्छे रिसीवर बन जांए.

                  भवतु   सब्ब   मंगलं

  प्रस्तुति — नेमसिंह शाक्य विपश्यनायक लखनऊ!

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